25 नवंबर 2015

सैनिकों का सम्मान तो बनायें रखें

अपने जीवन को कुर्बान कर देने वाले, पल-प्रति-पल मौत के साये में बैठे रहने वाले, अपने घर-परिवार से दूर नितांत निर्जन में कर्तव्य निर्वहन करने वाले जाँबाज़ सैनिकों के लिए बस चंद शब्द, चंद वाक्य, चंद फूल, दो-चार मालाएँ, दो-चार दीप और फिर उनकी शहादत को विस्मृत कर देना, उन सैनिकों को विस्मृत कर देना. बस! इतना सा ही तो दायित्व निभाते हैं हम. ये अपने आपमें कितना आश्चर्यजनक है साथ ही विद्रूपता से भरा हुआ कि जिन सैनिकों के चलते हम स्वतंत्रता का आनंद उठा रहे हैं उन्हीं सैनिकों को हमारा समाज न तो जीते-जी यथोचित सम्मान देता है और न ही उनकी शहादत के बाद. समूचे परिदृश्य को राजनैतिक चश्मे से देखने की आदत के चलते, वातावरण में तुष्टिकरण का रंग भरने की कुप्रवृत्ति के चलते, प्रत्येक कार्य के पीछे स्वार्थ होने की मानसिकता के चलते समाज में सैनिकों के प्रति भी सम्मान का भाव धीरे-धीरे तिरोहित होता जा रहा है. न केवल सरकारें वरन आम नागरिक भी सैनिकों को देश पर जान न्यौछावर करने वाले के रूप में नहीं वरन सेना में नौकरी करने वाले व्यक्ति के रूप में देखने लगे हैं; उनके कार्य को देश-प्रेम से नहीं बल्कि जीवन-यापन से जोड़ने लगे हैं; उनकी शहादत को शहादत नहीं वरन नौकरी करने का अंजाम बताने लगे हैं. ऐसा इसलिए सच दिखता है क्योंकि अब सैनिकों के काफिले शहर से  ख़ामोशी से गुजर जाते हैं. उनके निकलने पर न कोई बालक, न कोई युवा, न कोई बुजुर्ग जयहिन्द की मुद्रा में दिखता है, न ही भारत माता की जय का घोष सुनाई देता है. समाज की ऐसी बेरुखी के चलते ही सरकारें भी सैनिकों के प्रति अपने कर्तव्य-दायित्व से विमुख होती दिखने लगी हैं. यदि ऐसा न होता तो किसी शहीद सैनिक के नाम पर कोई नेता अपशब्द बोलने की हिम्मत न करता; किसी सैनिक की शहादत को तुष्टिकरण से न जोड़ा जाता; किसी सैन्य कार्यवाही को फर्जी न बताया जाता.
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संभव है कि एक सैनिक के लिए अपनी जीविका के लिए सेना में जाना मजबूरी रहती हो किन्तु किसी सैनिक की शहादत के बाद भी उसकी संतानों के द्वारा उस पर गर्व करना, सैनिक बनकर देश की रक्षा करने का संकल्प लेना, उस अमर शहीद के परिजनों द्वारा तिरंगे पर बलिदान होते रहने की कसम उठाना तो मजबूरी नहीं हो सकती? बहरहाल, देर तो अभी भी नहीं हुई है. हम सभी को एकसाथ जागना होगा, निरंतर जागे रहना होगा. न सही प्रतिदिन तो माह में किसी एक दिन समस्त सैनिकों को पूरे सम्मान के साथ याद तो कर ही सकते हैं. न सही उनके लिए कोई भव्य आयोजन मगर अपने बच्चों को अपने सैनिकों की वीरता के बारे में तो बता ही सकते हैं. न सही किसी राजनीति का समर्थन किन्तु सैनिकों के अपमान में बोले जाने वाले वचनों का पुरजोर विरोध तो कर ही सकते हैं.
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समाज किसी भी दशा में जाए, राजनीति अपनी करवट किसी भी तरफ ले, तुष्टिकरण की नीति क्या हो, ये अलग बात है मगर सच ये है कि ये सैनिक हैं, इसलिए हम हैं; सच ये है कि सैनिकों की ऊँगली ट्रिगर पर होती है, तभी हम खुली हवा में साँस ले रहे हैं; सच ये है कि वो हजारों फीट ऊपर ठण्ड में अपनी हड्डियाँ गलाता है, तभी हम बुद्धिजीवी होने का दंभ पाल पाते हैं; सच ये है कि वो सैनिक अपनी जान को दाँव पर लगाये बैठा होता है, तभी हम पूरी तरह जीवन का आनन्द उठा पाते हैं; सच ये है कि एक सैनिक अपने परिवार से दूर तन्मयता से अपना कर्तव्य निभाता है, तभी हम अपने परिवार के साथ खुशियाँ बाँट पाते हैं. देखा जाये तो अंतिम सच यही है; कठोर सच यही है; आँसू लाने वाला सच यही है; तिरंगे पर मर मिटने वाला सच यही है; परिवार में एक शहादत के बाद भी उनकी संतानों सैनिक बनाने वाला सच यही है. कम से कम हम नागरिक तो इस सच को विस्मृत न होने दें; कम से कम हम नागरिक तो सैनिकों के सम्मान को कम न होने दें; कम से कम हम नागरिक तो उनकी शहादत पर राजनीति न होने दें; कम से कम हम नागरिक तो उन सैनिकों को गुमनामी में न खोने दें.
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आइये संकल्पित हों, अपने देश के लिए, अपने तिरंगे के लिए और उससे भी आगे आकर अपने जाँबाज़ सैनिकों के लिए. जय हिन्द, जय हिन्द की सेना..!! 
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